Tuesday, December 23, 2008

ये क्या जगह है दोस्तो

छात्र – छात्राओं की खुली दुनिया का जिक्र आते ही जेएनयू का नाम आता है । इसीलिए यहाँ पढ़ने की हसरत हर युवा में होती है । जिनकी साध पूरी हो जाती है वे तालीम के एक नये माहौल से साक्षात्कार करते हैं । साथ ही एक सामुदायिक रिश्ते और चेतना की परिभाषा समझते हैं । यहाँ की इसी खूबी के कारण आज ‘ जेएनयू संस्कृति ’ नाम का जुमला विश्वविद्यालयी संसार में आम हो चुका है । इस संस्कृति और खुले माहौल को करीब से देखने की कोशिश की है अरविंद दास ने

नवल – नवेलियों का
उन्मुक्त लीला-प्रांगण
यह जेएनयू
असल में कहा जाए तो कह ही डालूं
बड़ी अच्छी है यह जगह
बहुत ही अच्छी
और क्या कहूँ ।

बाबा नागार्जुन ने यह बात बजरिए कविता सन 1978 में कही थी । ‘यह जेएनयू ’शीर्षक से लिखी इस कविता में आगे वे इस विश्वविद्यालय में दाखिला लेने की अपनी इच्छा जाहिर करते हैं। नागार्जुन की यह तमन्ना असल में देश के उन युवाओं की हसरत व्यक्त करती हैं जो मानसून के आते ही हर साल इस विश्वविद्यालय के दरवाजे पर दस्तक देने आ जाते हैं ।

वैसा ही मंजर है आजकल जेएनयू में । अपने जीवन का सबसे पुरउम्मीद दौर गुजारने के लिए छात्र- छात्राएँ परिसर को गुलजार करने में लगे हैं । एक खुली दुनिया में कदम रखने का अहसास उनके साथ है । इस सत्र में नामांकन शुरू हो चुका है । अकादमिक स्थलों , विभिन्न स्कूलों ,कैंटीन की दीवारों पर चिपके पोस्टरों , इबारतों में नए रंग की खुशबू महसूस की जा सकती है । पुराने छात्र , कामरेड नए छात्र- छात्रओं की नामांकन प्रकिया में बढ़ – चढ़कर सहयोग दे रहे हैं । हां ! जेएनयू में रैगिंग के लिए कोई जगह नहीं। आप बतौर मेहमान यहाँ स्वीकार किए जाते हैं । जेएनयू का यह खास रिवाज पीढ़ी-दर-पीढ़ी कायम है । शायद यहीं से इस संस्थान की विशिष्टता शुरू हो जाती है ।

अरावली की पहाड़ियों पर पुराने बरगद, नीम, और पीपल के पेड़ों के बीच बोगनबेलिया, अमलतास और गुलमोहर से सजे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अगर आप पहली बार पधारे हैं तो इस बात से शायद ही इंकार करें कि यहाँ की फिजा दिल्ली में हो कर भी ‘दिल्ली में नहीं’ का अहसास कराती है । असल में जेएनयू की एक अलग ही तहजीब है जो इसे अन्य विश्वविद्यालयों से अलग बनाती है । लगता है, यह पंडित नेहरू ख्वाब की वह ताबीर है जिससे जुड़ने का सपना देश के हर कोने का युवा करता है ।

भले ही यह संस्थान एक खास खयाल का पोषक कहलाए और इस पर मास्को- बीजिंग की घुट्टी पिलाने का तोहमत लगे, मगर एक जनतांत्रिक माहौल सभी को प्रभावित करता है । पूरी तरह आवासीय इस विश्वविद्यालय में छात्र-छात्राओं और शिक्षकों के रिश्ते भी एक खुलेपने को दर्शाते हैं । इनके आवास को एक –दूसरे के करीब बनाया गया है ताकि एक स्वस्थ, सामुदायिक नाता विकसित हो । यहां का जनतांत्रिक माहौल बनाने में वाद-विवाद और बहस-मुबाहिसों का बड़ा योगदान है । प्रश्न करने की प्रवृति और वाद-विवाद की संस्कृति यहाँ महज कक्षा तक ही सीमित नहीं है, बल्कि देर तक होने वाली पब्लिक मीटिगों और ढाबा तक फैली हुई है ।

छोटे शहरों –गाँवों से आने युवाओं के लिए विश्वविद्यालय के शुरूआती दिन तरह-तरह के अनुभव वाले होते हैं । किसी को अंग्रेजीदां, बिंदास लड़कियों की माया भरमाती है तो किसी को यहाँ का इंकलाबी माहौल। कहते हैं यह वह जगह है जहाँ हर साल कई ‘ रामसजीवन ’ बनते हैं। आज यहाँ जिस ‘ अफलातूनी मोहब्बत ’ की बात होने लगी है उनका विकास यों ही चंद दिनों में नहीं हो गया । कई पुराने बताते हैं : ‘हम तो हंसी तो फंसी के फलफसे वाले समाज से आए थे। बड़ा वक्त जाया होने के बाद जाना कि वह हंसी तो और ही कुछ कहती थी। अक्सर ही यह हंसी दोस्ती का आमंत्रण थी। लेकिन आज वक्त बदल चुका है। दूर से आने वाले युवा भी इतनी उम्मीद का भार लेकर नहीं आते कि भरभरा कर गिरने की नौबत आ जाए।

हिंदी में पीएचडी कर रही निधि अपना तजुर्बा बताती हैं: ‘शुरू शुरू में जब मैं अपने सहपाठी से बातचीत करती थी तो आभास नहीं था कि वह दोस्ताना संबंध को प्रेम मानने लगेगा। उसे समझाना मेरे वश में नहीं था। आखिर में मुझे दोस्ती तोड़नी पड़ी। ’ हालांकि बिहार-यूपी या सुदूर इलाकों से आने वाले नए छात्र इस बात को मानने को तैयार नहीं कि यहाँ कि चमकीली दुनिया में वे प्रेम और दोस्ती का फर्क ही भूल जाएं। आज के युवा करियर को लेकर ज्यादा खबरदार हैं।

बात मजाक में कही गई है, लेकिन सच है कि जेएनयू बंगाल, त्रिपुरा और केरल के बाद भारत का एक ऐसा राज्य है जहाँ पर मार्क्सवादी व्यवस्था और विचार हावी रहे हैं। शुरूआती दिनों से लेकर अब तक कैंपस के औसत छात्र-छात्राओं और अध्यापकों का रूझान वामपंथी विचारधारा की तरफ दिखता है। यहाँ की दाखिला नीति ही ऐसी है कि जिसमें गरीब, पिछड़े इलाकों से आने से आने वाले छात्रों का प्रवेश आसान हो सके । इसके लिए उन्हें अतरिक्त ‘डेप्रिवेशन पांइट्स ’ दिए जाते हैं। हालांकि 1984 में इस नीति को रद्द कर दिया गया। दस साल बाद 1994 में छात्रों के आंदोलन के बाद यह दाखिला नीति फिर लागू की गई। 2003-2004 के आकादमिक सत्र में 1318 छात्रों का नामांकन हुआ जिसमें से 594 छात्र निम्न तथा मध्य आय वर्ग से थे। 724 छात्र उच्च आय वर्ग से थे। साथ ही 354 छात्र ऐसे थे जिनकी शिक्षा पब्लिक स्कूलों में हुई थी जबकी 964 छात्र ऐसे थे जिनकी शिक्षा म्यूनिसिपल एवं गैर-पब्लिक स्कूलों में हुई।

जेएनयू में भले ही खास विचारधारा का फरहरा लहराता रहा, पर बदलाव की हवा यहाँ भी पुरअसर रही। दो दशक पहले यहाँ हिन्दी एक सहमी हुई भाषा थी। आज वह एक ताकत है। कैंपस में व्यवहार की भाषा के रूप में हिन्दी की स्वीकार्यता अंग्रेजी से कम नहीं है। हिन्दी भाषियों के दबदबे के अलावा टीवी चैनलों ने हिंन्दुस्तानी को यहाँ कि सहज भाषा बना दिया है। एक पुराने कामरेड हंसकर कहते हैं कि हमारे वक्त में ‘प्रेम’ करने के लिए अंग्रेजी के शब्दकोश चाटे जाते थे। अब लगता है हिन्दी में भी प्यार किया जा सकता है । यह बात भले ही हल्केपन में कही गई है, पर आमिताभ बच्चन से लेकर टीवी के नामी प्रस्तोताओं, फिल्मी सितारों की हिन्दी ने अपनी भाषा के हक में माहौल तो बना ही दिया है। जेएनयू में हिन्दी को लेकर हीनभावना के दिन लद गए लगते हैं।

पहरावे के जिक्र के बिना यहाँ की बात अधूरी ही रहेगी। जिस जींस-कुर्ते और झोले की शोहरत पूरे देश के रोशनख्याल परिसर में रही, उसका जनक जेएनयू ही है। कभी यहाँ पैंट-कोट पहन कर चलने वाला असहज हो जाता था, क्योंकि जेएनयू की फक्कड़ी का श्रृंगार जींस-कुर्ते से ही संभव था। अब बाजारवादी रूझान ने माहौल बदला है। पहरावे चाल-चलन में रंगीनी यहाँ भी आई है। लंबी कारें, मोबाइल एक नया समाज साफ दिखाने लगे हैं। ठाठ का मजाक उड़ाने वाले भी गाड़ियों के मॉडल और माइलेज पर मुबाहिसा करते दिख जाऐंगे। उदारीकरण के जीत का एक नमूना यहाँ भी देखा जा सकता है। हालांकि अभिनव कामरेड सफाई में कहते हैं कि उपभोक्तावादी दौर में हम डिब्बाबंद नहीं रह सकते।

बहरहाल जेएनयू के छात्र-छात्राओं की वर्ग चेतना किसी भी संस्थान को पाठ पढ़ा सकती है। ये चेतना उन्हें जाति, धर्म, आय-भेद से ऊपर बौद्धिक स्तर पर एक-दूसरे से जुड़ने को प्रेरित करती है। समाजशास्त्र में एमए कर रहे राजस्थान के बाबूलाल भील बताते हैं: ‘मेरे मन में अपनी आर्थिक-सामाजिक पृष्ठभूमि का ख्याल हर वक्त रहता है, पर सहपाठी, मित्रों, और शिक्षकों ने किसी भी तरह की हीनमन्यता को मेरे अंदर घर नहीं करने दिया।

सेंट स्टीफेंस कॉलेज से स्नातक, इतिहास में शोधरत सरोज झा कहते हैं : ‘वहाँ मैं खुद को मिसफिट पाता रहा। एक तरह का ‘स्नाबिश एटीट्यूड’ वहाँ मिलता है। जेएनयू आकर आप अपने समय और समाज से साक्षात्कार करते हैं।’

निजी आजादी की भी बड़ी नजीर आपको यहीं मिलेगी। इसका उदाहरण लैंगिक जागरूकता को लेकर बनाया गया फोरम ‘अंजुमन’ है। इसके सदस्य मारियो कहते हैं:मुबंई के जिस कॉलेज से मैंने स्नातक किया था वहाँ ऐसी किसी संस्था के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता। यहाँ हर किसी को अपना स्पेस मिला है। मैं अगर समलैंगिक हूँ, इससे दूसरों को क्या परेशानी है ?’
लेकिन ऐसा नहीं है कि यह स्पेस मुँहमांगे मिल गया हो। इसके लिए छात्रों ने काफी संघर्ष किया है। कैंपस के अंदर यौन-उत्पीड़न को रोकने के लिए बना संगठन जीएसकैश जिसका उदाहरण है। इसका गठन आठ मार्च 1999 को किया गया। अंतरराष्ट्रीय अध्ययन संस्थान से पीएचडी कर रही ग्रेसी सिंह कहती हैं: यहाँ के छात्रों की बौद्धिक जागरूकता उन्हें पूर्वग्रह से मुक्त करती है। लिंग, जाति,धर्म या क्षेत्र के प्रति किसी भी तरह का भेदभाव छात्रों के मन में नहीं दिखता है।’ इसी प्रकार जाति के आद्हार पर किसी भी तरह के भेदभाव को रोकने के लिए कैंपस में समान अवसर कार्यालय का गठन किया गया है।

विश्वविद्यालय सही मायनों में अखिल भारतीय स्वरूप का प्रतिनिधित्व करता है। केरल से लेकर कश्मीर तक और उत्तर-पूर्व राज्यों से लेकर मध्य भारत के कोने-कोने से यहाँ छात्र शुरूआती दिनों से आते रहे हैं। यह आवासीय परिसर छात्र – छात्राओं को एक-दूसरे को नजदीक से जानने का अवसर देता है। जो कुछ भी भ्रांतियाँ या पूर्वग्रह अन्य जाति या धर्म के प्रति रहते हैं, धीरे-धीरे खत्म होने लगते हैं। अरबी भाषा और साहित्य में शोधरत अताउर रहमान कहते हैं:‘मदरसा से पढ़ने के बाद जामिया मिलिया इस्लामिया में जब मैंने दाखिला लिया, वहाँ अपनों के बीच ही सिमटा रहा। यहाँ आकर पहली बार दुनिया को दूसरों की नजर से देखा।’

इसके बावजूद विदेशी छात्रों को अपनी ओर आकर्षित करने में विश्वविद्यालय अभी तक सफल नहीं हो पाया है। एक सत्र में बमुश्किल 50-60 विदेशी छात्र नामांकन लेते हैं। दो साल पहले समाजशास्त्र विभाग ने ग्लोबल स्टडीज प्रोग्राम शुरू किया था जिससे विदेशी छात्रों का आना बढ़ा है। कहना होगा कि विदेशी छात्रों को कैंपस की आबो-हवा में ढलते देर नहीं लगती है। हिन्दी में एमए कर रहे अमेरिका के विलियम टायलर ने पिछले साल ‘आईसा’ की ओर से भारतीय भाषा साहित्य एवं संस्कृति अध्ययन संस्थान में ‘काउंसिलर’ के पद के लिए चुनाव लड़कर सबको चौंका दिया था। अंतरराष्ट्रीय अध्ययन संस्थान में एमए कर रहे वियतनाम के फांग सिर्फ हिंदी गाने सुनते हैं बल्कि टूटी-फूटी हिंदी बोलने भी लगे हैं।

जेएनयू में पढ़ाना किसके लिए फख्र की बात नहीं है। कुछेक अपवादों को छोड़ कर शिक्षकों की नई पीढ़ी ने देश-विदेश के अकादमिक क्षेत्र में अपनी दक्षता साबित की है। लेकिन जैसा कि समाजशास्त्र विभाग के अध्यक्ष प्रो आनंद कुमार कहते हैं, कार्य के प्रति आत्मविश्वास और गरिमा का भाव नई पीढ़ी के शिक्षकों में घटता दिख रहा है। वे शिक्षकों के बीच आपसी संवादहीनता और उनकी राग दरबारी प्रवृति के बढ़ने का भी जिक्र करते हैं।

कैंपस के छात्र भले ही इंकार करें, पर कई अध्यापक इस बात को स्वीकारते हैं कि 70 के दशक के मुकाबले वर्तमान में शोध का स्तर इस संस्थान में भी गिरा हैं। प्रो रोमिला थापर कहती हैं पहले छात्र-छात्राओं में शोध को लेकर जो उत्साह था वह कम हुआ है। इस उदासीनता के लिए प्रो आनंद कुमार सामाजिक व्यवस्था को ज्यादा जिम्मेदार मानते हैं। वे कहते हैं कि आज इसकी कोई गारंटी नहीं कि यदि आपने एक अच्छी थीसिस लिख दी तो सम्मानजनक नौकरी किसी कॉलेज या विश्वविद्यालय में पा ही जाएंगे।

सत्तर के दशक में जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष रह चुके देवीप्रसाद त्रिपाठी बताते हैं कि उनके समय में आईएएस जैसी परीक्षा की तैयारी दोयम दर्जे का काम माना जाता था। छात्र इसे स्वीकार करने में शरमाते थे। जेएनयू के छात्र रह चुके वर्तमान में प्रोबेशनरी (प्रशिक्षु) आईएएस प्रणव ज्योतिनाथ कहते हैं, ‘जेएनयू के शिक्षित, जागरूक छात्र अगर आईएएस ज्वायन करते हैं तो निस्संदेह नौकरशाही के लिए अच्छी बात है। योजना बनाने, उनके क्रियान्वयन में छात्रों का अनुभव लाभदायक ही होगा।’

उदारीकरण के बाद उच्च शिक्षा के क्षेत्र में राज्य की घटती भूमिका तथा बेरूखी छात्र-छात्राओं के बीच निराशा का वातावरण तैयार कर रही है। भारतीय भाषा केंद्र में इसी महाने अपनी थीसिस जमा कर रहे फैजान अहमद कहते हैं ‘मेरे सामने बड़ा सवाल है कि इसके बाद क्या ?’ यहीं चिंता अर्थशास्त्र में पीएचडी कर रहे रामानंद राम की भी है। वे पूछते हैं कि अगर अवसर बहुराष्ट्रीय कंपनियों या प्रशासनिक सेवाओं में हो तो कोई क्यों नहीं उधर जाए ? आखिरकार नौकरी तो सबको करनी है।

यह मानना होगा कि वाम के इस गढ़ में बहुराष्ट्रीय कंपनियों का दखल बढ़ा है। स्कूल ऑफ आट्स एंड एस्थेटिक्स और ला एंड गवर्नेंस जैसे स्कूलों में फोर्ड फाउंडेशन का पैसा लगाया जा रहा है। अर्थशास्त्र, विदेशी भाषा के छात्रों को बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ ऊँची तनख्वाह देकर ले जा रही हैं। छात्र शोध को अधबीच छोड़कर नौकरी करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहे हैं। प्रश्न उठता है कि ऐसे में इस उच्च अध्ययन संस्थान में शोध का भविष्य क्या होगा?


सूधो सनेह को मारग

पिछले साल जब अंतरराष्ट्रीय अर्थशास्त्र में शोधरत शबूरी सेन ने अंग्रेजी साहित्य के शोध छात्र तारा प्रकाश से शादी की तो जेएनयू परिसर के सामान्य-सी बात थी। पर कैंपस के बाहर यह एक खबर थी। जहाँ शबूरी सेन बेहद खूबसूरत हैं, तारा मेधावी किंतु दृष्टिहीन हैं। इस समय दोनों दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेज में व्याख्याता है।

विभिन्न जाति और धर्म में बंटा भारतीय समाज जिसे ‘बेमेल’ विवाह कह कर विरोध करता रहा है वह जेएनयू को मान्य नहीं। जब से जेएनयू अस्तित्व में आया यहां विभिन्न जाति, समुदाय और धर्म की पृष्ठभूमि से आये छात्र – छात्राओं के बीच प्रेम संबंध बनते रहे हैं। यों तो युवाओं के बीच प्रेम संबंध का होना किसी भी विश्वविद्यालय के लिए सामान्य-सी बात है। जेएनयू की विशेषता यह है कि वर्षों साथ-साथ उठते-बैठते साहचर्य से विकसित प्रेम संबंधो की परिणति विवाह में होती है और काफी सफल रही है।

जेएनयू में पहले बैच के छात्र रहे, वर्तमान में विश्वविद्यालय में भूगोल के अध्यापक हरजीत सिंह बताते हैं ‘: तीस साल पहले जब हमने अपने धर्म के बाहर शादी की घरवालों ने काफी विरोध किया। पर हमें अपने गाइड प्रो मुनीस रजा और मित्रों का काफी सहयोग मिला था। ’ हरजीत सिंह कई ऐसे जोड़े के बारे में बताते हैं जिन्होनें अंतरजातीय विवाह किया है। इनमें कई आज जेएनयू के विभिन्न विभागों में अध्यापक हैं। यहाँ का पूरा समाजशास्त्र विभाग इसका प्रतीक है।

शादीशुदा शोधार्थियों के लिए बने छात्रावासों में कई ऐसी जोड़ियाँ हैं जिन्होनें समाज की प्रचलित मान्यताओं को खारिज कर शादी की है। ऐसी ही एक जोड़ी सुजान-राशिद की है। सुजान ईसाई हैं राशिद मुसलमान। सुजान कहती हैं: ‘धर्म हमारे प्रेम में कभी आड़े नहीं आया। धर्म व्यक्ति का निजी मामला है। ’ वे कहती हैं कि ऐसा नहीं कि हमारे बीच मतांतर नहीं है पर हम ध्यान रखते हैं कि मनांतर न हो।

पीएचडी अंतिम वर्ष के छात्र चंदन श्रीवास्तव कहते हैं : जिसे आप प्रेम कहते हैं असल में वह मैरिज ऑफ कनवीनियंस है, दो कैरियर ओरियेंटेड लोगों का आपसी मेल। पूँजीवादी समाज में प्रेम संभव नहीं है।’ सुजान इस बात से सहमत नहीं हैं। उनका कहना है कि मैरिज ऑफ कनवीनियंस तब कहा जायेगा जब आपके पास चुनाव न हो। यहाँ के पढ़े-लिखे, काबिल छात्र बाहर जा कर शादी करने के लिए स्वतंत्र हैं। कोई यहाँ प्रेम करने के लिए किसी को बाध्य नहीं करता।

जनसत्ता रविवारी, 31 जुलाई 2005 को प्रकाशित

2 comments:

  1. अरे वाह, आप तो हिन्दी में लिख लेते हैं फिर हिन्दी में और भी लिखिये।

    कृपया वर्ड वेरीफिकेशन हटा लें। यह न केवल मेरी उम्र के लोगों को तंग करता है पर लोगों को टिप्पणी करने से भी हतोत्साहित करता है। यदि हिन्दी में ही लिखने की सोचें तो अपने चिट्ठे को हिन्दी फीड एग्रगेटर के साथ पंजीकृत करा लें। इनकी सूची यहां है।

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  2. शुक्रिया, बस्तुतः यह आलेख अरविन्द कुमार के द्वारा जनसत्ता के लिए लिखा गया था जिसको यहाँ साभार स्वरुप पुन प्रकाशित किया गया. अगर आप अरविन्द जी के और आलेख को पढ़ना चाहते हैं, तो उनके ब्लॉग arvinddas.blogspot.com पर पढ़ सकते हैं.

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